मैं ऐंठन सी बलखाई सी,
कुछ लरज लरज शरमाई सी।
एक रोज बिदा हो जाऊँगी,
मैं हिंदी सी सो जाऊँगी॥
मैं लदी भूत-प्रेत की मिथ्या से,
कायरता की कविता से,
पाखंडो की बरबर्ता से,
मैं कल क्रूर विरा बन जाऊँगी॥
मैं हिंदी सी सो जाऊँगी।
मैं ज्ञान सरोवर बिसर गयी,
अंधकार ह्राष सी पसर गयी,
कल खोजोगे मैं किधर गयी,
मैं न रज ऋचा बिना रह पाऊँगी॥
मैं हिंदी सी सो जाऊँगी।
चिर नवीन ये शालायें,
बाल तरुण की आशाएँ,
विज्ञान गणित की वल्गाएँ,
परहित कर में धर जाउंगी॥
मै हिंदी सी सो जाऊँगी।
जब झूठे ढोल बजाओगे,
मिटटी के पुतले लाओगे,
जग प्रत्यक्ष रास रचाओगे,
मैं सब नयन अधर भर जाउंगी||
मै हिंदी सी सो जाऊँगी।
:-जीतेन्द्र राजाराम
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