Skip to main content

"फिर कबीर"

 माँ, नाना, राणा और कबीर ने मन में अलख लगा दी.… मैंने उस व्हाटशाप्प ग्रुप का नाम रक्खा "फिर कबीर"! 


"ये व्हॉटशॉप बड़ा बेदर्द है। बचपन में अगर कभी सोडा, मंजन लेने के लिए माँ चौराहे को भेजती थी तो उस वक़्त के बड़े भैय्या लोग पान बीड़ी की दूकान पे एक दुसरे को गरियाते और ठहाका लगाते हुए मिलते थे। वो लोग कभी अख़बार में कुछ पढ़ के उस पर चर्चा भी करते थे। चर्चा हमेशा किसी न किसी को गरियाने या किसी के मजाक उड़ाने पर ही जा के खत्म होती थी।
बारवीं पास कर के मैं जब इंदौर आ गया तो देखा के यहाँ के बड़े भैया लोग ऐसा कुछ नहीं करते। पान बीड़ी की दूकान में लोग ज्यादा देर नहीं रुकते हैं.… राजवाड़ा चौराहे की दूकान तो रात भर खुली रहती थी वंहा भी कोई अखबार पे या राजनीती पे या किसी विज्ञानं पे चर्चा नहीं करता था। कुछ दिनों में मैं भी रम गया, मैं भी लड़कियों की, जवानी की, प्रेम की बात करने लगा। फूहड़ता की हदें पार करने लगे। जिस लड़की से कालेज में सलीके से बात करते उसी के बारे में अनाप शनाप बकते और जोर जोर से हँसते। एक दिन यूँ ही किसी दोयम जुमले में हस्ते हस्ते मेरी नज़र शीशे में पड़ी। मैं ही था उस चित्र में.… लेकिन वो दूकान वाले बड़े भैया लोगों की याद आ गयी। मैं भी उतना ही बड़ा हो गया था। इस ख्याल ने अचानक से मुझे छोटा कर दिया, वो भैया लोग तो किसी अखबारी खबर में जिरह करते थे न की ऐसी फूहड़ बातों पर रक्कासी भरी हंसीं हँसते थे। उसदिन मैं बहुत दिनों बाद गंभीर हुआ था। 
बहुत दिनों बाद मैं खुद को समझा पाया की वो पीड़ी और थी, आज कल यही फैशन है। ग्रेजुएशन के बाद एमबीए में दाखिला लिया तो कुछ लगा की शहर आया हूँ। यहाँ लोग अंग्रेजी में बात करते थे, टाई लगाते थे। कालेज भी बहुत फेमस था। सरकारी था लेकिन फैशन वाला था..... वो प्रतियोगी परीछा पास करके दाखिल होना होता था, वरना कितने बीए बीकाम के कालेज खाली सड़ते हैं उसके लिए सब प्राइवेट कालेज में जाते हैं फैशन हैं। मेरा दाखिला हो गया था..... नहीं कोई पढने में तेज वेज नहीं था। आरछण था, मैं एससी से आता हूँ, उप्र का हूँ मप में मेरी जाती को आरछण नहीं था ऐसा बोल के सात हज़ार रूपए लिए थे एडमिशन वाले ने लेकिन कोई फीस नहीं लगी थी। एक रूपए भी नहीं… किसी सहपाठी को बताओ तो आँखें फाड़ के पूछता था 'एक रूपए भी नहीं?'। मैं थोड़ा झेंप के सर हिला देता था। उनके चेहरे में खीज छहर जाती थी। सत्तर हजार सालाना भरने के बाद भी उतना ही मिले जितना एक फटीचर चमार को मिलता है तो खीज काहे न होगी? बहरहाल मुझे बड़ा सुकून मिलता था। बचपन में स्कूल से लौटते वक़्त सरकारी नल से किसी की भरी बाल्टी जो नल से आ रहे पानी से उफन रही थी उसको हटा के पानी पीने लगे.… मैं और मेरे भाई.… तभी किसी ने हमें खीच पीछे फेंक दिया था गाली देते हुए, चमार भी कहा था। उस दिन पता चला था चमार होना कोई घिनौनी बात है। घर रोते हुए गए थे दोनों भाई.… पापा को सब सुनाया तो वो गुस्से में साथ लेके उसी नल के पास गए, वह उन्होंने उस घर के सामने खूब गालियां दी थीं। पहली बार मेरे पापा के मुह से गलियां सुनी थीं, मैं दंग रह गया था। इलाहबाद यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट हैं मेरे पापा, गाँव में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे … उन्होंने ही सिखाया था पढ़ने लिखने वाले लोग गाली नहीं बकते। पापा हीरो हैं मेरे पर उसदिन वो मुझे हीरो नहीं लगे थे। इस चमार शब्द ने मेरी नजर मेरे पापा की इज्जत कम की थी, इस लिए मैं इस शब्द से नफरत करता था। शर्म भी आती थि इसकी वजह से इस लिए कभी किसी से जिक्र नहीं करता था की चमार जाती से हूँ। लेकिन आज इस  चमार शब्द ने मेरे पापा के ऊपर सत्तर हज़ार का कर्ज होने से बचा लिया था और फिर मेरे साथी जब मन मसोस के रह जाते थे तो मुझे और ठंडक पड़ती थी कलेजे में।
खैर बचपन से कविताएँ लिखता हूँ! को क्या है, हमारा परिवार मजदूरों की बस्ती में रहते हुए भी पापा ने हमें केंद्रीय विद्यालय में दाखिल कराया था। इस बात पर पडोसी खुन्नस में रहते थे, इस लिए आते जाते कभी चिटपट पे जुआं खिलाना चाहते तो कभी तम्बाकू खिलाना और फिर पापा से शिकायत कर हमें मार खिलवाते थे। पापा भी हमारी एक न सुनते और खूब पिटाई कर देते…  पढने में मैं कुछ ख़ास नहीं था, और मेरा रंग भी मेरे दोस्तों जितना गोरा नहीं था इस लिए किसी से बात करने में झिझक होती थी। मन में सवाल बहुत होते थे लेकिन टीचर के दबाव में कोई सवाल कर भी लिया तो लोग हंसने लगते थे। टीचर भी हँसते हुए टौन्ट मार के बैठा देता था... इसलिए बहुत कुछ मन में दबता गया। उन्हीं ख्यालों को मचल के लिख देता था तो बस गजल हो जाती थी। कवि होना सचमुच दर्द का विषय है हा हा हा! खैर एक दिन एक दोस्त बैंगलोर घूमने के बाद घर आया था मिलने। उसने बताया की शहर में कोई हिंदी बोलता ही नहीं! हम सभी लोग डर गए। यूँ तो सेंट्रल स्कूल इंग्लिश मध्यम का था लेकिन हमें किसी को अंग्रेजी नहीं आती थी! मैं और ज्यादा डर गया। ले दे के बस कविताएँ लिखना आता था, वो भी हिंदी में..... पापा कहते हैं बारवी के बाद शहर जाना है, अब क्या होगा। दुसरे दिन लाइब्रेरी गया इंग्लिश सीखने के लिए.… एक साउथ इंडियन सर मिले उन्होंने कहा तुम मुझे हिंदी सिखाओ मैं तुम्हे इंग्लिश सिखाऊंगा। कारंवा चल निकला!! 
आज एमबीए की पढाई में मैं अच्छी इंग्लिश बोल लेता हूँ। एक दिन एक टीचर ने आरछण पे तंज कसे, बार बार उकसाने वाली भाषा में लोगो को हंसा रहे थे। वो शरीर के रंग से समझ जाते थे की कौन आरछित सीट वाला है। मैंने भी उनको करारा जवाब दिया था.। न्याय और बराबरी पर अपने पापा के जितने लेक्चर सुने थे उन सब को क्लास में दे मारा था। भरी क्लास में उस टीचर का मुह छोटा हो गया था। उसदिन मुझे घमंड हुआ था अपने चमार होने पर।
समर इंटर्नशिप के लिए दिल्ली गया, वहां एक समाचार चैनल में इंटर्नशिप का मौका मिला। उसी ग्रुप का अखबार भी निकलता था इंग्लिश में। मैं एम्स\ के पास एक कालोनी में रहता था, उन दिनों एम्स में युथ फार इक्वलिटी पर छात्रों का संघर्ष चल रहा था. … मैंने आरछण की शुरुवात और उसके इतिहास के बारे में एक लेख लिखा था अंग्रेजी में। ईमेल चलाना नया नया सीखा था, बहुत सारे मेल आये थे। लेकिन युथ फार इक्वलिटी वाले उस संघर्ष ने मेरे विचारों पे कई सवाल छोड़ दिए थे। मसलन ये की हमें मौका मिलना चाहिए लेकिन उनकी कीमत पर क्यूँ ? आखिर उनकी क्या गलती है? खैर भीतर ही भीतर मैं राजनीतिज्ञ हो चला था। मैंने अपने ही इन सवालों को नजर अंदाज करने लगा और जोर शोर से आरछण का समर्थन करने लगा। दिल्ली तो ख्याति पाने का शहर है, एक बड़े नाम चीन पुराने क्रिकेट कप्तान के गोल्फ कोर्स के विमोचन में गया था, वहां भी लोगों को मेरे बॉस ने मेरे आर्टिकल के बारे में बताया था.। लोग बड़े खुश हुए थे। 
एमबीए के बाद नौकरी मिली, एक लड़की से मुहोब्बत हुई वो ऊंचे जात की थी, और फिर उस दिन से मैंने अपनी जाती छुपाना शुरू कर दी। आरछण का समर्थन बंद कर दिया, नफरत से ही सही पर मंदिर भी जाने लगा। खैर पूरे जीवन भर में जीतनी उम्र जवानी की होती है, पूरी जवानी भर में उतनी ही उम्र मुहोब्बत की होती है। सो सावन बीतने के कगार पर ही ये व्हाटशाप्प नाम की बला से पाला पड़ा था.… धीरे धीरे ग्रुप बनाने शुरू हुए। छोटी छोटी क्लिपिंग्स में पोर्न वीडियो भी आने लगी.… 
लेकिन इन दिनों जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ था! मैं अख़बार छोड़ के टीचर बन गया था। अपनी नावेल लिखनी थी इस लिए आराम की नौकरी तलाशी और एक इंजीनियरिंग कालेज में टीचर लग गया। वैसे तो टीचर होने का शौख था लेकिन सब ने कहा था की आजकल वो बात नहीं रही छात्रों में, सो मैंने भी टाइमपास करने की ठानी और अपने नावेल में मशगूल हो गया। फिर कुछ छात्रों ने मेरे अंदर के टीचर को खोज निकला। उन्ही दिनों एक लड़की अनजाने में मेरे मोबाइल में वो पोर्न वीडियो देख लिया। वो अचानक उठ कर चली गयी, मामला समझ आते ही मैं शर्म से पानी पानी हो गया था। दो दिन तक मारे शर्म के कालेज नहीं गया था। 

पान बीड़ी के गुमटी वाले वो बड़े भौयया लोग मुझे मेरे ऊपर हँसते हुए दिखाई देने लगे.… उनका अख़बार, उनकी जीरहेँ सब कानों में गूंजने लगी थी..... उस दिन मैंने निस्चय किया की सारे व्हाटशाप्प ग्रुप डिलीट कर के एक भद्र ग्रुप बनाऊंगा! उसमे सिर्फ सार्थक बहस होगी कुछ भी अनर्गल नहीं होगा! एक पोएम की किताब खरीदी थी, फिर कबीर! मुनव्वर राणा की कविता संग्रह थी! उनके लिखे 'माँ' पर छंद ने मुझे याद दिलाया की मेरे नाना जी कबीरपंथी थे। उन्होंने खुद को चमार समझने से इंकार कर दिया था! माँ, नाना, राणा और कबीर ने मन अलख लगा दी.… मैंने उस व्हाटशाप्प ग्रुप का नाम रक्खा "फिर कबीर"! सभी दोस्तों को उसमे जोड़ा निवेदन किया की अनर्गल न लिखे। सबने इस पहल का स्वागत किया और हमारा ग्रुप गजब उफान पर चला गया। ८००-१००० कमेंट थ्रेड्स ने गजब धा दिया था.… सन्डे को तो हम सब कई कई हज़ार कमेंट्स कर डालते थे। लेकिन मामला बिलकुल उन पान की गुमटी में अखबार की खबर के बहेस जैसा होने लगा। हर बहेस का अंत सिर्फ किसी न किसी पर तंज या ताने पर ख़तम होती। मैं हर बहेस में हिस्सा लेता था, लेकिन रिजर्वेशन के मुद्दे पर शांत हो जाता। लोगो ने मुझे इस मुद्दे पर घेरना शुरू किया, दबे मुह मैंने रिजर्वेशन के पक्छ में जिरह देता लेकिन घेराव ढीला नहीं होता था। सवाल पे सवाल ने मुहे ये जिरह हरा दी थी। मन ही मन मैं रिजर्वेशन का धुर समर्थक था लेकिन ऐसे किसी बहस में शांत ही रहने लगा। 
फिर राईट विंग कट्टर वादियों की सर्कार बनी और रिजर्वेशन पर लामबंद तरीके से प्रचार चालू हो गया। तरह तरह की दलीले दी जाने लगी! एक मोटा तै कोट पहने शूद्र दिखाया जाता और एक गरीब भूक से बिलखता ब्राह्मण और कांग्रेस को गाली देते हुए लिखा रहते ये है रिजर्वेशन। मुझे इन खोखले दलीलों पे तरस आने लगा। मैंने मन ही मन इस विषय पर लोगों को मानसिक रूप से दिवालिया घोषित कर दिया। जैसा की सभी स्वयंभू विद्द्वान करते हैं। 
फिर एक दिन, एक मासूम सी खूबसूरत सी लड़की (मेरी स्टूडेंट) किसी शोध विषय पर चर्चा के लिए मेरे आफिस बैठी थी, उसके बाकी साथियों के साथ। कुछ बातों में उसने बड़े गुस्से में कहा "वो तो ये रिजर्वेशन न होता तो आज मैं डॉक्टर होती!" उसका गोरा चेहरा गुस्से में लाल हो गया था! पहली बार मैंने रिजर्वेशन के इस बहस को जलते हुए देखा था! हलाकि व्यापम घोटाले की याद करते हुए मैंने उस लड़की को शांत करने की दलील देनी चाही लेकिन उसदिन मेरे अन्दर का स्व्याम्भ विद्द्वान फिर मर गया। मैंने उसे बिना कोई जवाब दिए मन में हि मैंने ने निश्चय किया की इस विषय पर पुख्ता शोध करने की आवश्यकता है। 

आज एक मित्र ने फेसबुक पे लिखा की "भारतीय वामपंथ/वामपंथियों ने समाज को नहीं समझा, इसीलिए समाज इन्हें समझ नहीं सका"। मुझे तुरंत याद आया की अरुंधती रॉय ने आंबेडकर पर एक टिपण्णी की थी की उन्होंने दलितों पर तो उम्दा शोध किया है लेकिन आदिवासियों को बेसहारा ही छोड़ दिया! एक दलील और थी की किस प्रकार गाँधी ने गरीबी का ढोंग कर के भारतीय समाज के पूरे बहेस को जातीवाद से हटा कर गरीबी पर केन्द्रित कर दिया! किस प्रकार गरीब ब्राह्मण एक अत्यंत गरीब दलित पर अत्याचार कर लेता है। नीच जाती का होना और गरीब होना दोनों में कितना फरक है। ये सब सोच ही रहा था की आज एक हिंदी सिनेमा ने कई पहेली सुलझा दी। किस प्रकार दसरथ मांझी के पडोसी ने नाक्साली होना स्वीकार किया, किस प्रकार चुहार जाती के पैरों में नाल ठोंक दी जाती है। 

'फिर कबीर' के उस ग्रुप में एक दोस्त ने मुझे ताना मार के कहा यूँ बहेस से कुछ नहीं होता जाओ 'मांझी की तरह' पहाड़ तोड़ो! उसने इस सिनेमा की इतनी तारीफ की की इन्सान अपने बल बूते कुछ भी कर सकता है.… मैं बड़ी देर तक दसरथ मांझी के उस पडोसी के बारे में सोचता रहा.… वो नाक्साली क्यूँ बना, उसे पुलिस ने गोली क्यूँ मरी, उसकी बीवी का बलात्कार क्यूँ हुआ… उस सिनेमा से कोई ये सारे सवाल क्यूँ नहीं पूछ रहा है? 

आज भी ये जवाब तो मैं नहीं ढूंढ पाया की "हमें तो अधिकार मिलना चाहिए लेकिन उनकी कीमत पर क्यूँ?" लेकिन ये जवाब मिल गया की लोग हर समस्या को अपनी आँखों से देखते है। उन्हें हमेशा अपनी समस्या ज्यादा त्वरित, गंभीर और दर्दनाक लगती है। क्यों अगर हम सब 'रिजर्वेशन' पर सवाल करने के बजाये ये सवाल करने लग जाए की सरकार एक व्यक्ति पर एक सम्भावना मुहैया क्यों नहिं करा सकती? हर आदमी के लिए सीट्स होंगी तो रिजर्वेशन की जरुरत ही क्यूँ पड़ेगी? लोग दलील देते हैं की देश में संसाधनों की कमी है.… हाला की ये फरेब है की संसाधनों की कमी है..... मुट्ठी भर लोग अपर संसाधनों को डकार के कुंडली मारे हुए है संसाधन तो अपार है! अगर हम सब लोग,माई-बाप को यानि साकार को बाध्य करें की सबको सबका हक मुहोइया करो तो क्या ये संभव नहीं है की रिजर्वेशन खुद बा खुद अस्तिविहीन हो जायेगा? यकीन मानिये अगर हमने टेलीग्राम को अस्सी के दसक में बंद किया होता तो कोहराम हो जाता, लेकिन व्हात्शाप के जामने में टेलीग्राम बंद किया है इसलिए सबने उसे भावभीनी श्रद्धांजलि दी है। हम रिजर्वेशन को भी अलविदा कह सकते है लेकिन एकजुट होकर, आमने सामने होकर नहीं! 

सोचियेगा! हमसब काले हैं, लेकिन ये दुनिया रंगीन हैं.… क्या आप इन रंगों को बचाना चाहते हैं? आइये साथ मिलते है! उन्मूलन विभेद का हो मतभेद हुए बिना… चलो हम सब कबीर हो जाएँ!

Comments

Unknown said…
अच्छा,एवं वास्तविक अनुभवो से गूंथा हुआ लेख,
अंत सार्थक है,
to abolish something,we need to get a better replacement.
until then neither the prevalence of reservation nor that of polythene can be abolished
Unknown said…
vyaskrishan111@gmail.com

अच्छा,एवं वास्तविक अनुभवो से गूंथा हुआ लेख,
अंत सार्थक है,
to abolish something,we need to get a better replacement.
until then neither the prevalence of reservation nor that of polythene can be abolished
Anonymous said…
And you me in कठघरा । not in फिर कबीर ।
Unknown said…
बहुत ही खूबसूरत लेख
Unknown said…
बहुत ही खूबसूरत लेख

Popular posts from this blog

My letter to Mr. Chetan Bhagat

Sent to bhakti@chetanbhagat.com  as on 26, August 2013, In response to Mr. Bhagat's Article  Sunday Times, 25th August 2013, Indore Edition  Dear Mr. Bhagat, This is awful that a person of your stature is out rightly supporting a cult publicly. Knowing that millions of youth will be influenced by your opinion, you should have behaved more responsibly in public. We know media is sold to Modi and international big brothers want to use Modi cult by giving rest to UPA for at least a term. For international diplomacy BJP & Congress are all alike. While these two national parties will keep wrestling over their core ideologies of being Hindu Nationalists & Secular Nationalists, they will always settle on the economic policies favoring to international markets. They will be ready to provide free flow accessibility of Indian consumers & natural resources to foreign corporate giants. It is sadly termed as a real growth of India. Because if foreign inve...

The Cusp of Democracy & Autocracy

A country where earning Rs.18 a day tags you not poor, Election Commission spends Rs.73 per voter to conduct the general election  - Jitendra Rajaram "O ut of 123 democratic countries in the world, not a single country is 100% democratic. Not a single democracy conducts 100% impartial election. In India where 36% population lives in a $1 a day, the cost of election is more than $1 a vote. The irony doesn't end here! The political parties conesting in such elections have spent more $13 to woo every single elector in 2019 General Election of India. Owing the amount of money spent, should we call it a democracy or plutocracy? Nic Cheeseman and Brian Klass wrote in the first page of their book “How to Rig an Election” with a statement “The greatest political paradox of our time is this: there are more elections than ever before, and yet the world is becoming less democratic”. The book written by Nic Cheeseman & Brian Klass, Harper Collins Publication | Yale Univers...

Theocracy Strengthens Aristocracy and Defies Democracy.

"It was easy in ancient time for religions to progress for two reasons. One every civilization was miles apart from every other civilization" - Jitendra Rajaram   "T he mixture of fear and weakness among the people who surrenders to feudalism has enlarged the idea of God-ism. The theory first coined by the power hungry ruling class and their serfs. People, when united, are the ultimate power. The select few (ruling class) always wanted to control this power of people. The control of power is all about channelizing the energy it holds. This is how the need of an imaginary superpower evolved. A superpower which can channelize the energy of united people. Ruling class invented this imaginary power to tame the real power (i.e. people).  Had I ONLY been introduced to anyone of Brahma or Allah or Moses or Christ during my childhood I would have easily believed upon god. The creators of God (i.e. Ruling Class) have devised so circumventing methods to establish...