मेरे देश के गाँव
ढूंढ कर चंद तिनको को इकठ्ठा किया...
रात भर माटी को रौंदा किया।
चंद रोटियों से कर गुजरा...
खेत के काम से थका हारा।
लड़ा झगडा, पड़ोसियों से तकरार किया...
कुछ इस तरह फूस का महल तैयार किया।
कुछ मुझ जैसे ही लोग ऐसा करते हैं...
विराट देश के उस मासूम से गाँव में रहते हैं।
लाल पूरब जहाँ दिन का शुभारंभ है...
चिर कलरव ही जहाँ अपनी अलारम है।
हल बैल ही एक तेज सवारी है...
आफिस नहीं जहाँ खेत की तयारी है।
नंगे पैर जहाँ माटियों में चलते है...
विराट देश के उस मासूम गाँव में रहते है।
छल कपट कर सपाट जाने को जहाँ कोई नहीं...
विश्वाश की आँखे जहा अभी सोईं नहीं।
अपनों सा जहाँ सब ब्योहर किया करते है...
विराट देश के उस मासूम से गाँव में रहते है।
रात गंगू की माँ जब बीमार पड़ी...
गाँव भर की नींद फिर हराम पड़ी।
लम्हों में वैद जी को बुलाया गया...
शिद्दत से उनका इलाज़ कराया गया।
अपने पन से जहाँ सब काम किया करते है...
विराट देश के उस मासूम से गाँव में रहते है।
एक रोज अचानक जब बाढ़ आई...
पूरे खेतों में फसलो में कहर ढाई।
दाना दाना अनाज का दूर बह गया...
इस बरस मै किसान फिर झूर रह गया।
फिर भी,
सुखा दुःख को जहाँ सब साथ मिलके सहते हैं...
विराट देश के उस मासूम से गाँव में रहते हैं।
:-जितेन्द्र राजाराम वर्मा
jitendrarajaram@gmail.com
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